न्याय विभाग


Piyush Kant Dixit
प्रो. पीयूष कांत दीक्षित
विभागाध्यक्ष
प्रोफेसर, न्याय विभाग
14.09.2023 to 13.09.2026

न्याय विभाग में प्राचीन न्याय तथा नव्य न्याय दोनों विषयों का अध्ययन और अध्यापन होता है। इन दोनों विषयों का क्रमशः परिचय निम्नलिखित है।

प्राचीन न्याय

इस विषय का अध्ययन करने वाले छात्र मुख्य रूप से प्राचीन न्यायदर्शन एवं वैशेषिकदर्शन के प्रारम्भिक ग्रन्थों का अध्ययन करते हैं । प्राचीन न्याय का प्रथम ग्रन्थ “न्याय-सूत्र” हैं । इसके निर्माता महर्षि गौतम हैं । इस ग्रन्थ को आन्वीक्षिकी, न्यायविद्या, न्याय-दर्शन, न्यायशास्त्र तथा तर्क-शास्त्र नाम से भी जाना जाता है । इस दर्शन में सोलह पदार्थ या तत्त्व माने गये हैं – प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति तथा निग्रहस्थान । इन पदार्थों का विशद विवेचन इस ग्रन्थ में किया गया है । न्यायशास्त्र के सम्बन्ध में महान् राजनीतिज्ञ कौटिल्य का मानना है कि यह शास्त्र सभी विद्याओं को प्रकाशित करता है –

प्रदीपः सर्वविद्यानाम् उपायः सर्वकर्मणाम् । आश्रयः सर्वधर्माणां सेयमान्वीक्षिकी मता ।।

प्रायः सभी न्यायदर्शन के ग्रन्थ न्यायसूत्र ग्रन्थ पर आधारित हैं ।

वैशेषिक दर्शन

वैशेषिक-दर्शन - कणाद-दर्शन, औलूक्य-दर्शन नाम से भी जाना जाता है । वैशेषिक दर्शन का प्रथम ग्रन्थ – वैशेषिकसूत्रम् है। इस ग्रन्थ के रचयिता महर्षि कणाद है। वैशेषिक दर्शन में सात पदार्थ माने गये है – द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय, अभाव। इन्हीं सात पदार्थों का विशद विवेचन इस ग्रन्थ में है । अधुनातन अनेक भौतिक विज्ञान के सिद्धान्तों का मूल रूप वैशेषिक दर्शन में मिलता है, जिन सिद्धान्तों में परमाणु, गुरुत्वाकर्षण, प्रक्षेपण आदि सिद्धान्त प्रमुख हैं ।

“द्वित्वे च पाकजोत्पत्तौ विभागे च विभागजे। यस्य न स्खलिता बुद्धिः तं वै वैशेषिकं विदुः।।”

यह कथन स्पष्ट करता है कि इस दर्शन में द्वित्व सङ्खा, पाक से होने वाली उत्पत्ति (पाकजोत्पत्ति) एवं विभाग से उत्पन्न विभाग (विभागजविभाग) की विशेष चर्चा है । न्याय-दर्शन एवं वैशेषिक-दर्शन परस्पर एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं अतः इन्हें समान-तन्त्र (समान शास्त्र) माना गाया है । इन दोनों दर्शनों के अध्ययन से छात्रों में तार्किक क्षमता का विकास होता है तथा किसी भी विषय को युक्ति के आधार पर समझने की कला विकसित होती है ।

इस दर्शन में सृष्टि का प्रारम्भ परमाणु से माना गया है । संसार के प्रमुख पाँच तत्त्वों – पृथ्वी, जल, तेज, वायु एवं आकाश की वैज्ञानिक चर्चा यहाँ प्राप्त होती है ।

सृष्टि के आधार परमाणु की समीक्षा करते हुए न्याय-वैशेषिक दर्शन में स्पष्ट कहा गया है –

जालान्तर्गते भानौ यत् सूक्ष्मं दृश्यते रजः ।
तस्य षष्ठतमो भागः परमाणुः स उच्यते ।।

जब घर में झरोखे से सूर्य की रश्मियाँ प्रवेश करती हैं तब इन रश्मियों के बीच उड़ते हुए जो छोटे-छोटे कण दिखाई पडते हैं, उनमें एक कण के छठे भाग को परमाणु कहा जाता है । यह परमाणु-सिद्धान्त प्रायः मूल रूप से अधुनातन वैज्ञानिकों के सिद्धान्तों से मिलता है। फलतः इस दर्शन का विशिष्ट ज्ञान भविष्य में विज्ञान क्षेत्र में गम्भीर आनुसन्धान की दृष्टि से अत्यन्त उपादेय है ।

नव्य – न्याय

इस विषय का अध्ययन करने वाले छात्र मुख्य रूप से “तत्त्व-चिन्तामणि” ग्रन्थ का अध्ययन करते हैं । “तत्त्व-चिन्तामणि” नव्य-न्याय का प्रथम ग्रन्थ है । इसके रचयिता आचार्य गङ्गेश उपाध्याय हैं। नव्य-न्याय, न्याय-सूत्र पर ही मूल रूप से आधारित है ।

न्यायदर्शन के प्रमाण-प्रमेय आदि सोलह पदार्थों का ही नव्य-न्याय के ग्रन्थों में विशिष्ट भाषा एवं शैली में प्रतिपादन किया है। प्राचीन न्याय के ग्रन्थों में विशेषतः प्रमेय पदार्थों का वर्णन है लेकिन नव्य न्याय के ग्रन्थों में आचार्य गङ्गेशोपाध्याय ने प्रमाण पदार्थों का वर्णन विशेष रूप से किया है।

नव्य-न्याय के ग्रन्थों की भाषा प्रकारता, विशेष्यता, संसर्गता, प्रतियोगिता, अनुयोगिता, अवच्छेदकता - अवच्छेद्यता, निरूपकता - निरूप्यता, कारणता – कार्यता, प्रतिबन्धकता – प्रतिबध्यता, अधिकरणता – आधेयता, व्याप्यता – व्यापकता, विषयता – विषयिता आदि विशिष्ट पारिभाषिक शब्दों से भरी है । इन शब्दों से बनी नव्य-न्याय की भाषा अध्येता को किसी भी पदार्थ के सूक्ष्म से सूक्ष्म रहस्य को सुस्पष्ट समझाने में अत्यन्त उपयोगी है । इसीलिये सभी शास्त्रों में विषय को सूक्ष्म रूप से सुस्पष्ट करने की दृष्टि से बाद के सभी समीक्षकों ने नव्य-न्याय की भाषा को सादर अपनाया है । कम्प्यूटर के विशेषज्ञों ने इस भाषा को कम्प्यूटर के लिये सर्वाधिक उपयोगी माना है ।

इस प्रकार नव्य- न्याय के अध्ययन से न्याय-दर्शन एवं वैशेषिक-दर्शन के अत्यन्त गूढ़ रहस्यों को समझने में जहाँ हम समर्थ होते हैं वहीं व्याकरण, ज्योतिष, साहित्य आदि अन्य शास्त्रों के मर्म को भी भली-भाँति समझने समझाने की विलक्षण प्रतिभा भी अनायास प्राप्त कर लेते हैं । नव्य-न्याय के अध्ययन से हर प्रकार का अज्ञान दूर हो जाता है । बुद्धि निर्मल होती है । संस्कृत पदों के व्यवहार की शक्ति उत्पन्न होती है । शास्त्रान्तर के अभ्यास की योग्यता प्राप्त होती है । इस प्रकार तर्कशास्त्र में किया गया श्रम छात्रों का हर तरह से उपकार करता है । विश्वगुणादर्शचम्पू में ठीक कहा है –

मोहं रुणद्धि विमलीकुरुते च बुद्धिं सूते च संस्कृतपदव्यवहारशक्तिम्।
शास्त्रान्तराभ्यसनयोग्यतया युनक्ति तर्कश्रमो न कुरुते किमिहोपकारम् ।।

यह आन्वीक्षिकी न्यायविद्या सुधीजनों के सभी प्रयोजनों को भी सिद्ध करने वाली है । सभी दर्शनों के विख्यात विद्वान् श्रीवाचस्पतिमिश्र न्यायभाष्य की व्याख्या करते हुए स्पष्ट कहते हैं - “भाष्यकारास्तु नास्त्येतत् प्रेक्षावतां प्रयोजनं , यत्रान्वीक्षिकी न निमित्तं भवति।”
प्रत्यक्ष एवं शब्द प्रमाण से विषय का ज्ञान कर लेने के बाद पुनः जो इस विषय को ईक्षण अर्थात् परीक्षण किया जाता है इसे ही अन्वीक्षा कहा जाता है । जिस शास्त्र में इस प्रकार हर विषय की अन्वीक्षा करते हुए तत्त्वों का निर्धारण किया जाता है उसे आन्वीक्षिकी कहते है।

इस प्रकार यह आन्वीक्षिकी वास्तव में भारतीय अनुसन्धान शास्त्र है तथा हर शास्त्र के लिये उपयोगी है यह संयुक्ति प्रमाणित होती है ।

अध्ययन सामग्री / संदर्भ

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संकाय विवरण

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क्रमांक फ़ोटो नाम विभाग पद
1 बिष्णुपद महापात्र प्रो. बिष्णुपद महापात्र न्याय विभाग प्रोफेसर
2 महानंद झा प्रो. महानंद झा न्याय विभाग प्रोफेसर
3 राम चंद्र शर्मा डॉ राम चंद्र शर्मा न्याय विभाग एसोसिएट प्रोफेसर