प्रो. सुदीप कुमार जैन
विभागाध्यक्ष
प्राकृत विभाग के प्रोफेसर
21.01.2023 से 20.01.2026
‘‘वाचः प्राकृत-संस्कृतौ श्रुतिगिरो’’ आद्यशंकराचार्य की इस उक्ति के अनुसार प्राकृत और संस्कृत-दोनों भाषायें भारतीय विद्या की संवाहिका हैं।
समस्त भाषाशास्त्रियों ने भारत की प्राचीनतम लोकभाषा के रूप में प्राकृतभाषा के अस्तित्व एवं महत्व को स्वीकार किया है। आचार्य पाणिनि, चण्ड, वररुचि, समन्तभद्र आदि अनेकों प्रख्यात भाषाविद-मनीषियों ने प्राकृत के व्याकरण ग्रन्थ लिखे। भगवान्-महावीर और महात्माबुद्ध जैसे प्रख्यात ऐतिहासिक महापुरूषों ने अपने उपदेश इसी भाषा में प्रदान किये। सम्पूर्ण आगम-साहित्य इसी भाषा में निबद्ध है। लोक-साहित्य की प्रायः सभी विधाओं में प्राकृतभाषा-निबद्ध साहित्य प्राप्त होता है। यथा-रूपकसाहित्य,काव्यसाहित्य, कथासाहित्य, चरितसाहित्य, दार्शनिकसाहित्य, छंदश्शास्त्रीयग्रंथ, कोशग्रंथ, मुक्तकसाहित्य, वास्तुशास्त्रीयग्रन्थ, ज्योतिषशास्त्रीयग्रन्थ, गणितशास्त्रीयग्रन्थ, भूगोलविद्या, खगोलविद्या, रसायनशास्त्र, धातुवाद, वनस्पतिशास्त्र, भूविज्ञान, रत्नविद्या आदि अनकेविध ज्ञान-विज्ञान के विषय अतिप्राचीनकाल से प्राप्त होते हैं, तथा विश्वभर के विद्वानों ने इनका अप्रतिम महत्व माना है।
विविध भारतीय आंचलिक एवं क्षेत्रीय भाषाओं के साथ-साथ राष्ट्रभाषा हिन्दी भी प्राकृत-अपभ्रंश की परम्परा में विकसित हुई है, संस्कृतभाषा के मूल-उत्स छान्दस्भाषा (वेदों की भाषा) में भी प्राकृतभाषायी तत्वों की प्रचुरता है।अतः भारतीय भाषाशास्त्र, भाषाओं, बोलियों के क्रमिक विकास को समझने के लिए प्राकृतभाषा एवं इसके साहित्य का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है।
प्राचीन भारत के सभी शिलालेख (अभिलेखीय साहित्य) प्राकृतभाषा में ही निबद्ध है। प्राङ्मौर्ययुगीन अभिलेख, सिक्के, सम्राट् अशोक के अभिलेख, सम्राट् खारवेल का अभिलेख, वडली का अभिलेख इन सभी की भाषा प्राकृत है। प्राकृतभाषा का बहुआयामी साहित्य भारतीय इतिहास, संस्कृति, कला, दर्शन व ज्ञान-विज्ञान की महत्वपूर्ण धरोहर है।
भारत की मूलभाषा 'प्राकृतभाषा' है:--
- भगवान् श्री महावीर स्वामी एवं महात्मा बुद्ध जैसे युगान्तरकारी महापुरुषों ने अपने उपदेश 'प्राकृतभाषाओं' में इसलिये दिये, क्योंकि वे अपने विचारों व उपलब्धियों को जनसामान्य तक पहुँचाना चाहते थे और प्राचीन भारत में जनसामान्य की भाषा प्राकृतभाषा ही थी।
- जैन एवं बौद्ध-परम्पराओं के समस्त मूल-ग्रन्थों का प्रणयन 'प्राकृतभाषाओं' में ही हुआ है, जिनमें ज्ञान-विज्ञान की अमूल्य-निधि संचित है। इनके अतिरिक्त लोक-साहित्य के विविध-रूपों में भी प्राकृतभाषाओं के बहुविध-प्रयोग सर्वत्र प्राप्त होते हैं।
- आचार्य भरतमुनि ने अपने ग्रन्थ 'नाट्यशास्त्र' में विविध-कर्मकौशलों के धनी अधिकांश भारतवासियों की भाषा 'प्राकृतभाषा' थी-- यह स्पष्ट-शब्दों में कहा है।
- "भारतवर्ष की समस्त भाषाओं का मूलस्रोत 'प्राकृतभाषा' है" -- ऐसा महाकवि वाक्पतिराज लिखते हैं :--
सयलाओ इयं वाचा, विसंति च एंति वायाओ।
एंति समुद्दं चिय, णेंति सायराओच्चिय जलाइं।।
(गउडवहो महाकाव्य, 93)
- भारत के प्रथम-राष्ट्रपति महामहिम डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी भगवान् श्री महावीर स्वामी की जन्मभूमि 'वैशाली' के विषय में लिखे गये विश्वविख्यात ग्रन्थ 'वैशाली अभिनन्दन-ग्रन्थ' (Homeage to Vaishali) में लिखते हैं :--
"वास्तव में इस देश की आधुनिक-भाषायें पूर्वमध्य-युग में प्रचलित विभिन्न-प्राकृतों तथा अपभ्रंश की ही उत्तराधिकारिणी हैं। हिन्दी, बंगला, मराठी आदि किसी भी भाषा को लीजिये, उसका विकास किसी न किसी प्राकृत से हुआ है। इस दृष्टि से देखा जाये तो आधुनिक भाषाओं की उत्पत्ति और पूर्ण-विकास समझने के लिये प्राकृत-साहित्य का सम्यक्-ज्ञान आवश्यक है।
प्राकृत-साहित्य की खोज तथा अवलोकन और प्राकृत-ग्रन्थों के प्रकाशन का महत्त्व असाधारण है। प्राकृत-साहित्य का पूर्णज्ञान प्राप्त किये बिना भारत के साहित्य का हमारा ज्ञान सदा अधूरा रहेगा। यदि स्वाधीन होने के बाद भी हम प्राकृत के लुप्त और विस्मृतप्रायः ग्रन्थों की पूरी खोजकर उन्हें साधारण-ज्ञान की सरिता में नहीं मिला सके, तो आश्चर्य ही नहीं, लज्जा की बात होगी।
शास्त्री प्रथमवर्ष से लेकर विद्यावारिधि तक प्रायः इन सभी विधाओं के प्राकृतभाषा की वाङ्मय के ग्रन्थ विशेषज्ञ-समिति द्वारा पाठ्यक्रम में निर्धारित किए गये हैं, जिनमें सम्राट अशोक व खारवेल के अभिलेख, आचारांगसूत्र, समयपाहुड, पवयणसार आदि आगमग्रंथ, प्राकृतलक्षण, प्राकतप्रकाश, सिद्धहैमशब्दानुशासन जैसे व्याकरणग्रंथ, चारूदत्तं, मृच्छकटिकं, अभिज्ञान-शाकुन्तलं, कप्पूरमंजरीसट्टक, सुभद्दाणाडिगा जैसे रूपकग्रंथ, गाहासत्तसई एवं वज्जालग्गं जैसे मुक्तकग्रंथ, समराइच्चकहा, लीलववईकहा एवं कुवलयमालाकहा जैसे कथाग्रंथ, पउमचरियं आदि चरित्रग्रन्थ समाहित हैं। इनका नियमित रूप से अध्ययन-अध्यापन व अनुसन्धान का कार्य प्राकृतभाषा विभाग द्वारा किया जाता है।